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अंजाम क़िस्सा-गो का | शाही शायरी
anjam qissa-go ka

नज़्म

अंजाम क़िस्सा-गो का

ज़ुबैर रिज़वी

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पुरानी बात है
लेकिन ये अनहोनी सी लगती है

वो शब वा'दे की शब थी
गाँव की चौपाल पूरी भर चुकी थी

ताज़ा हुक़्क़े हर तरफ़ रक्खे हुए थे
क़िस्सा-गो ने एक शब पहले कहा था

साहिबो तुम अपनी नींदें बिस्तरों पर छोड़ कर आना
मैं कल की शब तुम्हें अपने सलफ़ का आख़िरी क़िस्सा सुनाऊँगा

जिगर को थाम कर कल रात तुम चौपाल पर आना
वो शब वा'दे की शब थी

गाँव की चौपाल पूरी भर चुकी थी
रात गहरी हो चली थी

हुक़्क़े ठंडे हो गए थे लालटेनें बुझ गई थीं
गाँव के सब मर्द क़िस्सा-गो की राह तकते थक गए थे

दूर तारीकी में गीदड़ और कुत्ते मिल के नौहा कर रहे थे
दफ़अ'तन बिजली सी कौंदी

रौशनी में सब ने देखा
क़िस्सा-गो बरगद तले बेहिस पड़ा था

उस की आँखें आख़िरी क़िस्सा सुनाने की तड़प में जागती थीं
पर ज़बाँ उस की कटी थी

रात वो बस आख़िरी थी
क़िस्सा-गो का अन-कहा अपने सलफ़ का

आख़िरी क़िस्सा लबों पर काँपता था