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अन-पढ़ गूँगे का रजज़ | शाही शायरी
an-paDh gunge ka rajaz

नज़्म

अन-पढ़ गूँगे का रजज़

अहमद जावेद

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ख़ामोशी मेरा लश्कर है
लफ़्ज़ों की दलदल

और उस में पलने वाली जोंकें
ये मुतअफ़्फ़िन आवाज़ें

मेरी यलग़ार के आगे साबित-क़दम रहेंगी?
क्या तुम वाक़ई ऐसा समझते हो

कि तुम्हारे मैदान इतने फ़राख़ हैं
कि मेरे अस्प-ए-असील को थका देंगे

तुम्हारे समुंदर इतने मव्वाज हैं
कि मेरा रिज़्क़ उलट देंगे

और तुम्हारे पहाड़ इतने संगलाख़ हैं
कि मेरा झंडा न थामेंगे

दुश्मन अहमक़ हो तो मेरा ग़ुस्सा बढ़ा देता है
सक़ाहत मेरी मुअय्यना मक़्तूल है

और ख़ुश-फ़हमी मुक़र्ररा मज़बूह
मेरी चिंघाड़ सूर-ए-इस्राफ़ील का पेश-आहंग है

लफ़्ज़ की मिनमिनाहट से पाक
अंधे सय्यारों के टकराव की माफ़ौक़-ए-समाअत गड़गड़ाहट

आवाज़ की मुकम्मल मिंहाई का शोर
लिखे हुए लफ़्ज़ को भी शक़ कर देता है

ये इबारतें तुम्हारा सफ़-बस्ता लश्कर हैं
फ़र्ज़ी हथियारों से मुसल्लह ये लश्कर

जिसे ख़याली क़िलों के ब्रिज गिराने का बड़ा तजरबा है
इस की ना-बूदी मेरी एक चुप के फ़ासले पर है

याद! रखना
मेरे पास कोई रस्सी नहीं होती

जो तुम्हारे गले में डालने और
तुम्हारे हाथ बाँधने के काम आए

मेरा फ़ितराक हमेशा ख़ाली रहता है
और मेरे क़ैद-ख़ाने कभी आबाद नहीं रहे

मैं जंग से पहले ही दुश्मन शुमार कर लेता हूँ
फिर मक़तुलीन की गिनती नहीं करता

सब जानते हैं
मुझ पर नेज़ा फेंकने वालों की पस्पाई ना-तमाम रहती है

मेरी हैबत से ज़मीन मक़्नातीस बनती है
और हवा कोहरबाई करती है

मेरा शिकार बिजलियाँ हाँकती हैं
मौत मेरा तरकश उठा कर चलती है

और मेरा रथ आँधियाँ खींचती हैं
लफ़्ज़ों के मक्तूब जंगल इतने घने नहीं हैं

कि तुम्हें आग की बारिश से तर-ब-तर न होने दें
सर्फ़-ओ-नहव का साएबान इतना बड़ा नहीं है

कि सितारा-ए-अजल तुम से ओझल रह जाए
किताबों से इतनी ऊँची दीवार नहीं बनती

कि क़िताल सन्नाटा फलाँग न सके
क्या हसीन दुनिया थी

जिसे तुम ने लफ़्ज़ों से दाग़दार कर दिया
उस के ताबिंदा आफ़ाक़

इन पिंजरों में घट कर साक़ितुश्शम्स हो गए हैं
कैसी ज़िंदा ज़मीन थी

जिस में तुम ने ज़हर बो दिया
कैसा रौशन आसमान था

जिसे तुम तारीकी के मफ़्हूम में सर्फ़ कर चुके हो
तुम ने शुऊर को झूटा

और फ़ितरत को गदला कर दिया है
महज़ ज़बान के चटख़ारे के लिए

तुम ने वजूद का असास-उल-बैत
फ़रहंगों के मोल बेच खाया

मैं काएनात की बाज़याबी के लिए निकला हूँ
मेरा ख़ंजर लफ़्ज़ का पेट चाक करेगा

मअ'नी की ज़म्बील फाड़ डालेगा
और कज़ज़ाब इशारों के हाथ क़लम कर देगा

जिन्हों ने सय्यारों को गुमराह कर रखा है
बे-ज़बानों को मुज़्दा हो

हक़ीक़त का असली तनाज़ुर बहाल होने को है
तुम्हारे दुश्मन फ़सीलों के तसव्वुर में महसूर हैं

सियाह आईने की ये मख़्लूक़
जिस की मनहूस परछाईं ने

हर तरफ़ शोर मचा रक्खा है
ख़ुद ही अपना मदफ़न है

मेरी आख़िरी यलग़ार से हो जाएँगे सारे मनाज़िर
सारी आवाज़ें

आज़ाद
ना-मल्फ़ूज़....