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अमीर-ए-शहर की नेकी | शाही शायरी
amir-e-shahr ki neki

नज़्म

अमीर-ए-शहर की नेकी

ज़ुबैर रिज़वी

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पुरानी बात है
लेकिन ये अनहोनी सी लगती है

अमीर-ए-शहर रातों को
बदल कर भेस

गलियों में फिरा करता
वो दीवारों पे लिक्खी

हर नई तहरीर को पढ़ता
सराए में हर इक नौ-वारिद-ए-शब से

सफ़र का माजरा सुनता
घरों की चिमनियों को देख कर

अंदाज़ा-ए-नान-ए-जवीं करता
परेशाँ-हालियों से बा-ख़बर रहता

मज़ारों मक़बरों की चौखटों को चूमता
और शब गए मस्जिद में आता

सुब्ह तक
याद-ए-इलाही में बसर करता

हुआ इक रात यूँ
चारों तरफ़ दरिया उमड आया

कोई जागा नहीं
तन्हा

अमीर-ए-शहर के बाज़ू
फ़सील-ए-शहर की बुनियाद को थामे रहे शब भर

बदन की ढाल से
सैलाब को रोके रहे शब भर

सुना है फिर कभी
दरिया की तुग़्यानी

फ़सील-ए-शहर को ढाने नहीं आई
अमीर-ए-शहर की नेकी

ज़माने तक
ख़ता-कारों के काम आई