कहाँ अब कहाँ वो हवा
जो सुनहरी सी अल्हड़ सी पगडंडियों पर
मिरे पीछे पीछे चली मैं ने जिस से कहा
यूँ न आ देख लेगा कोई
वो हँसी ज़हर में डूबे होंटों ने मुझ से कहा
तू यूँ ही डर गया
मैं हवा
दूर पर्बत पे मेरा नगर
ऊँचे आकाश पर मेरा घर
ज़र्द पगडंडियों से मुझे वास्ते
और मैं बढ़ता गया
ऊँचा उठता गया
दूर पर्बत पहुँचा तो गूँगा नगर
मुझ को हैरत से तकने लगा
सोने आकाश से
टूटे कंगन की किर्चें बरसने लगीं
नीचे पगडंडियों पर भी कोई न था
नज़्म
अलमिया
वज़ीर आग़ा