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अकेली बस्तियाँ | शाही शायरी
akeli bastiyan

नज़्म

अकेली बस्तियाँ

महबूब ख़िज़ां

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बे-कस चमेली फूले अकेली आहें भरे दिल-जली
भूरी पहाड़ी ख़ाकी फ़सीलें धानी कभी साँवली

जंगल में रस्ते रस्तों में पत्थर पत्थर पे नीलम-परी
लहरीली सड़कें चलते मनाज़िर बिखरी हुई ज़िंदगी

बादल चटानें मख़मल के पर्दे पर्दों पे लहरें पड़ीं
काकुल पे काकुल ख़ेमों पे ख़ेमे सिलवट पे सिलवट हरी

बस्ती में गंदी गलियों के ज़ीने लड़के धमा-चौकड़ी
बरसे तो छागल ठहरे तो हलचल राहों में इक खलबली

गिरते घरौंदे उठती उमंगें हाथों में गागर भरी
कानों में बाले चाँदी के हाले पलकें घनी खुरदुरी

हड्डी पे चेहरे चेहरों पे आँखें आई जवानी चली
टीलों पे जौबन रेवड़ के रेवड़ खेतों पे झालर चढ़ी

वादी में भीगे रोड़ों की पेटी चश्मों की चंपाकली
साँचे नए और बातें पुरानी मिट्टी की जादूगरी