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अकेले होने का ख़ौफ़ | शाही शायरी
akele hone ka KHauf

नज़्म

अकेले होने का ख़ौफ़

ज़ुबैर रिज़वी

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हमें ये रंज था
जब भी मिले

चारों तरफ़ चेहरे शनासा थे
हुजूम-ए-रह-गुज़र बाहोँ में बाहें डाल कर चलने नहीं देता

कहीं जाएँ
तआक़ुब करते साए घेर लेते हैं

हमें ये रंज था
चारों तरफ़ की रौशनी बुझ क्यूँ नहीं जाती

अंधेरा क्यूँ नहीं होता
अकेले क्यूँ नहीं होते

हमें ये रंज था
लेकिन ये कैसी दूरियाँ

तारीक सन्नाटे की इस साअत में
अपने दरमियाँ फिर से चली आईं