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अजनबी | शाही शायरी
ajnabi

नज़्म

अजनबी

वज़ीर आग़ा

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ऊन उतरी भीड़ के मानिंद पेड़
मुँह चिढ़ाती दिल दुखाती चोटियाँ

दूर नीचे पत्थरों की सेज पर
सर पटख़ती चीख़ती नद्दी रवाँ

आसमाँ पर मुर्दा बादल ख़ेमा-ज़न
क़हक़हों से रअ'द के ना-आश्ना

महर जैसे कोई मजबूर-ए-अज़ल
एक मैले जाल में उलझा हुआ

मल्गजी सी रौशनी में एक पेड़
काँपती उँगली से मुझ पर ख़ंदा-ज़न

आसमाँ पर दाएरे के रूप में
चीख़ते रोते हुए भूके परिंद

दम-ब-दम ग़ोता लगाते मेरी ओर
दम-ब-दम मुझ पे झपटते मुर्दा-ख़ोर