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अजनबी | शाही शायरी
ajnabi

नज़्म

अजनबी

शाज़ तमकनत

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अब ये एहसास दम-ए-फ़िक्र-ए-सुख़न होने लगा
अपनी ही नज़्मों का भूला हुआ किरदार हूँ मैं

मैं मुसाफ़िर हूँ बयाबान-ए-फ़रामोशी का
अपने नक़्श-ए-कफ़-ए-पा से भी शनासाई नहीं

ता-ब-पहना-ए-नज़र रेत के टीलों का सुकूत
अपना साया भी यहाँ मोनिस-ए-तन्हाई नहीं

तीर बन कर कोई सन्नाटे के दिल में उतरे
किसी मायूस परिंदे की सदा-ए-तन्हा

ज़ख़्मी आहू-ए-रमीदा की अदा-ए-तन्हा
काश पल भर को उतर आता ख़ुदा-ए-तन्हा

मैं किसी आज़र-ए-गुमनाम का बुत हूँ शायद
जिस की क़िस्मत में कोई चश्म-ए-तमाशाई नहीं

इज़्न-ए-फ़रियाद नहीं रुख़्सत-ए-गोयाई नहीं
दूर उस पार शफ़क़ रंग गुफाओं से परे

ज़ेर-ए-मेहराब-ए-फ़लक क़ाफ़िला-ए-उम्र-ए-रवाँ
तान उड़ाते हुए सरमस्त ओ जवाँ गुज़रा था

मह-निशाँ नज़्म-चकाँ मेहर-इनाँ गुज़रा था
ख़ूँ रुलाता है सुबुक-गामी-ए-महमिल का समाँ

अब भी कौंदा सा लपकता है घटाओं से परे
मैं भी उस वक़्त सर-ए-राह था हैराँ हैराँ

पा-बरहना नज़र-आवारा तन-अफ़्गार ख़मोश
दर्द से मोहर-ब-लब सूरत-ए-दीवार ख़मोश

ख़लिश-ए-हसरत-ए-जाँ थी कि कोई पहचाने
शम्अ सी दिल के निहाँ-ख़ाने में लर्ज़ां लर्ज़ां

मुझ पे क्या बीत गई कौन सुने क्या जाने
चश्म-ए-ख़ूँ-बस्ता को आसेब का मामन समझा

क़ाफ़िले वालों ने शायद मुझे रहज़न समझा