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अद्ल का फ़ुक़्दान | शाही शायरी
adl ka fuqdan

नज़्म

अद्ल का फ़ुक़्दान

ज़ेहरा अलवी

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क़ातिल-ओ-मक़्तूल बराबर
ज़ालिम-ओ-मज़लूम बराबर

क़लम भी बंदूक़ बराबर
मा'तूब-ओ-महबूब बराबर

अपनी गोया साथी की
हर इक ख़ातून बराबर

नई दानिश्वरी जो पढ़ी
मूसा-ओ-क़ारून बराबर

ज़ुल्म तो सब पर साँझा था
बनी-इसराईल-ओ-फ़िरऔन बराबर

माँ चाहे रोती रहे
शहीद बच्चे और मलऊन बराबर

बलोच जो घर से ग़ाएब हैं
सब पर मगर क़ानून बराबर

ज़ुल्म की अंधी फ़िक्र में
यज़ीद-ओ-हुसैन बराबर

नई नई पढ़ी सहाफ़त
मशअ'ल-ओ-हुजूम बराबर

अंधेरा भी उजाले सा है
ज़ुल्मत-ओ-नूर बराबर

बसीरत पर पर्दा पड़ा
सच और हर इक झूट बराबर

उल्टी गंगा बहती है
मदारी-ओ-अफ़लातून बराबर

जब तक अपना न बहे
आब-ओ-ख़ून बराबर

इक उन का भी मार गिराओ
फिर कहना मारने वाला और मरहूम बराबर