एक दिन हज़रत-ए-फ़ारूक़ ने मिम्बर पे कहा
क्या तुम्हें हुक्म जो कुछ दूँ तो करोगे मंज़ूर
एक ने उठ के कहा ये कि न मानेंगे कभी
कि तिरे अदल में हम को नज़र आता है फ़ुतूर
चादरें माल-ए-ग़नीमत में जो अब के आईं
सेहन-ए-मस्जिद में वो तक़्सीम हुईं सब के हुज़ूर
उन में हर एक के हिस्से में फ़क़त इक आई
था तुम्हारा भी वही हक़ कि यही है दस्तूर
अब जो ये जिस्म पे तेरे नज़र आता है लिबास
ये उसी लूट की चादर से बना होगा ज़रूर
मुख़्तसर थी वो रिदा और तिरा क़द है दराज़
एक चादर में तिरा जिस्म न होगा मस्तूर
अपने हिस्से से ज़ियादा जो लिया तू ने तो अब
तू ख़िलाफ़त के न क़ाबिल है न हम हैं मामूर
गरचे वो हद-ए-मुनासिब से बढ़ा जाता था
सब के सब मोहर-ब-लब थे चे इनास ओ चे ज़कूर
रोक दे कोई किसी को ये न रखता था मजाल
नश्शा-ए-अदल-ओ-मसावात से सब थे मख़मूर
अपने फ़रज़ंद से फ़ारूक़-ए-मोअज़्ज़म ने कहा
तुम को है हालत-ए-असली की हक़ीक़त पे उबूर
तुम्हीं दे सकते हो इस का मिरी जानिब से जवाब
कि न पकड़े मुझे महशर में मिरा रब्ब-ए-ग़फ़ूर
बोले ये इब्न-ए-उम्र सब से मुख़ातिब हो कर
इस में कुछ वालिद-ए-माजिद का नहीं जुर्म ओ क़ुसूर
एक चादर में जो पूरा न हुआ उन का लिबास
कर सकी इस को गवारा न मिरी तब-ए-ग़यूर
अपने हिस्से की भी मैं ने उन्हें चादर दे दी
वाक़िआ की ये हक़ीक़त है कि जो थी मस्तूर
नुक्ता-चीं ने ये कहा उठ के कि हाँ ऐ फ़ारूक़
हुक्म दे हम को कि अब हम उसे मानेंगे ज़रूर
नज़्म
अदल-ए-फ़ारूक़ी का एक नमूना
शिबली नोमानी