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अबुल-अला-म'अर्री | शाही शायरी
abul-ala-marri

नज़्म

अबुल-अला-म'अर्री

अल्लामा इक़बाल

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कहते हैं कभी गोश्त न खाता था म'अर्री
फल-फूल पे करता था हमेशा गुज़र-औक़ात

इक दोस्त ने भूना हुआ तीतर उसे भेजा
शायद कि वो शातिर इसी तरकीब से हो मात

ये ख़्वान-ए-तर-ओ-ताज़ा म'अर्री ने जो देखा
कहने लगा वो साहिब-ए-गुफ़रान-ओ-लुज़ूमात

ऐ मुर्ग़क-ए-बेचारा ज़रा ये तो बता तू
तेरा वो गुनह क्या था ये है जिस की मुकाफ़ात?

अफ़्सोस-सद-अफ़्सोस कि शाहीं न बना तू
देखे न तिरी आँख ने फ़ितरत के इशारात!

तक़दीर के क़ाज़ी का ये फ़तवा है अज़ल से
है जुर्म-ए-ज़ईफ़ी की सज़ा मर्ग-ए-मुफ़ाजात!