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अबस | शाही शायरी
abas

नज़्म

अबस

आदिल हयात

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मिरा घर अजनबी लगता है क्यूँ आख़िर
वो राहें भी

जो घर तक ले के जाती हैं
कभी थीं आश्ना मुझ से

मगर ना-आश्ना अब हैं
बहुत मायूस हूँ सब से

मुझे पहचानने वाला
नहीं कोई

कोई रिश्ता भी अब अपना नहीं लगता
यहाँ की रेशमी सुब्हें

उजाले अपने आँगन के
उदासी से भरी शामें

चमकते रात के तारे
सभी ये मुझ से कहते हैं

कि अब के जब सफ़र करना
जहाँ जाना

वहीं रहना
अबस है उस जगह आना

अबस है लौट कर आना