ये कैसी लज़्ज़त से जिस्म शल हो रहा है मेरा
ये क्या मज़ा है कि जिस से है उज़्व उज़्व बोझल
ये कैफ़ क्या है कि साँस रुक रुक के आ रहा है
ये मेरी आँखों में कैसे शहवत-भरे अँधेरे उतर रहे हैं
लहू के गुम्बद में कोई दर है कि वा हुआ है
ये छूटती नब्ज़, रुकती धड़कन, ये हिचकियाँ सी
गुलाब ओ काफ़ूर की लपट तेज़ हो गई है
ये आबनूसी बदन, ये बाज़ू, कुशादा सीना
मिरे लहू में सिमटता सय्याल एक नुक्ते पे आ गया है
मिरी नसें आने वाले लम्हे के ध्यान से खिंच के रह गई हैं
बस अब तो सरका दो रुख़ पे चादर
दिए बुझा दो
नज़्म
अबद
फ़हमीदा रियाज़