हमारी आँख में नोकीले काँटे
और बदन में
ज़हर के नेज़े तराज़ू हो चुके थे
जब सियह शब ने
गुलाबी सुब्ह के ग़र्क़ाब होने की ख़बर पर
हम से फ़ौरी तब्सिरा माँगा
हमारे होंट
इतने ख़ुश्क,
और इतने दरीदा थे
कि हम इक लफ़्ज़ भी कहते
तो रेज़ा रेज़ा हो जाते
क़लम हाथों में क्या लेते
कि अपने हाथ पहले ही क़लम थे
(क्या सुख़न कहते
कहाँ लिखते, किसे लिखते)
सो अहल-ए-जाह ने
जो तब्सिरा (जो क़त्ल-नामा) सामने रक्खा
हम अहल-ए-सब्र ने
ख़ूँ-रंग होंटों की दरीदा मेहर
उस पर सब्त कर दी
नज़्म
आसार-ए-क़दीमा से निकला एक नविश्ता
हसन अब्बास रज़ा