शम्अ की लौ ने जब आख़िरी साँस ली
आख़िर-ए-शब
निगाहों से गिरने लगी ओस
पहलू बदलने लगी
राह की जागती गर्द
सोने लगी रात
और ख़ामुशी गीत बुनने लगी
नक़्श-ए-बे-ख़्वाब चलने लगे
हाल ओ माज़ी कहीं आँख मलने लगे
मंज़िलों के निशाँ चीख़ते रह गए
नज़्म
आख़िरी साँस
शहरयार