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आख़िरी पड़ाव | शाही शायरी
aaKHiri paDaw

नज़्म

आख़िरी पड़ाव

सलीम फ़िगार

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शायद मेरी ज़मीन
अपने सफ़र के आख़िरी पड़ाव से आगे निकल चुकी है

मंज़िल पर जलते हुए फ़लक-बोस अलाव की हिद्दत कुछ इतनी तेज़ है
कि दरख़्तों के जड़ों से ले कर

शाख़ों के सरों पर आने वाला बौर तक
पसीने और गर्मी से हाँप रहा है

वक़्त की कठाली में उबलते हुए हालात के साथ
अब के किसी अक़्ल-मंद ने हवा के हाथ पर रक्खे हुए

तमाम मौसम भी उठा कर डाल दिए हैं
मुझे याद है कि शुऊ'र की पहली सीढ़ियों पर पाँव रखते ही

किस अस्बिय्यती लम्हे ने
मेरे कानों में सरगोशी की थी

कि तुम अपने बाप की पैदाइश से भी बहुत पहले गिरवी रख दिए गए थे
मैं उस दिन से ले कर आज तक बही-खातों के

क़र्ज़ वाले ख़ाने से नहीं निकल सका
और मेरे हाथों में इतनी बे-इख़्तियारी भर दी गई है

कि मेरे घर के दरवाज़े की चाबियाँ हर रोज़ फिसलती हुई
मेरी उँगली की आख़िरी पोर पर आ जाती हैं

और मैं दहशतनाक आँखों से ख़ला में देखने लगता हूँ
कि जैसे दूर ग़ुलामी के सियाह मंज़र

आधे से ज़्यादा दर्सी किताबों से बाहर निकल आए हैं
ख़ौफ़ के लम्बे नाख़ुनों ने ख़ाक-ज़ादों के बदन की मिट्टी ऐसे खुरच दी है

जैसे मकानों की दीवारों का कच्चा रंग
तेज़ बारिशों में उतर कर नालियों में बह जाता है

घरों मोहल्लों और सड़कों पर नादीदा दीवारें इतनी ऊँची उठा दी गई हैं
कि हम इकट्ठे रहते हुए एक साथ चलते हुए भी

एक दूसरे को देख नहीं सकते
और क्या कहूँ कि इस साल देखने सुनने और बोलने पर भी नमकीं लगा दिया गया

जैसे हम सब अपने अपने बदन में तन्हा कर के मार दिए जाएँगे
वो अहद ज़्यादा दूर नहीं

जब हमें कोई नस्ल मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की तरह दरयाफ़्त करेगी
सोच रहा हूँ कि हमें कितने फ़िट गहरा खोद कर निकाला जाएगा

और फिर म्यूजियम में रखी हुई शीशे की अलमारियों में
पुरानी हड्डियों के नीचे ये तहरीर जब कोई सय्याह रख कर पढ़ेगा

कि ये इस दौर का इंसान था जब तरक़्क़ी अपने नुक़्ता उरूज से भी आगे थी
मगर तालीम-याफ़ता इस मुआ'शरे के लोग ग़ारों में रहने वालों से ज़्यादा तहज़ीब-याफ़ता थे

ये एक शाएर था
जो एहसास की क़ब्र में

अपनी मौत से पहले दफ़्न कर दिया गया