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आख़िरी मौसम | शाही शायरी
aaKHiri mausam

नज़्म

आख़िरी मौसम

राजेन्द्र मनचंदा बानी

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ज़माँ मकाँ के हज़ार हंगामे क़ल्ब-ए-ख़स्ता को इस तरह ढेर कर गए हैं
कि जैसे इक ख़ुश्क ख़ुश्क पत्ते की कपकपाती हुई रगों से

चिपक रही हो तमाम माहौल के मनाज़िर की माँदगी भी
हर एक झोंके की ख़स्तगी भी

ये ख़ुश्क पत्ता
हवा के मबहूत दाएरों में ज़मीन से सर पटक के अपनी तमाम रंगत बदल चुका है

अब एक पत्थर के यख़-ज़दा और सियाह सीने पे आ के बेहोश हो गया है
मैं क़ल्ब-ए-ख़स्ता को ले के संगीन दौर के फ़र्श पर पड़ा हूँ

मगर यकायक कुछ ऐसे चौंकाया क़लब-ए-ख़स्ता को एक ख़्वाब-ए-हसीं ने आ कर
कि जैसे बारिश का पहला क़तरा

कुछ इतनी शिद्दत से ख़ुश्क पत्ते पे आ गिरे उस को तोड़ डाले