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आख़िरी डाइरी | शाही शायरी
aaKHiri Diary

नज़्म

आख़िरी डाइरी

क़ाज़ी सलीम

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पंद्रह रोज़ अलालत के, ऐसे गुज़रे जिन में बाहम राब्ता न था
फैल गया इक तन्हा दिन तब दूसरे तन्हा दिन से मिला

धीरे धीरे ईंट पे ईंट जमी
मेरे चारों तरफ़ दीवार बनी

पंद्रह रोज़ के बाद कहीं ये ज़िंदाँ टूटा
वापस लौटा अपनी दुनिया में

सब कुछ वैसे ही पड़ा है जैसे छोड़ गया था
मेज़ उसी तरह तिरछी रक्खी है

रैक से एक किताब निकाली थी यूँही खुली पड़ी है
धूप उतरती धूप मिरी अलमारी के आधे पट पर रुकी हुई है

अब वो यहीं से वापस हो जाएगी
जैसे उस की हदें हमेशा से मुक़र्रर हैं

जैसे मेरे होने न होने का कोई फ़र्क़ नहीं
खिड़की से फिर वही हवाएँ लौट आईं हैं

मेरे सीने में जो साँस की सूरत तैर चुकी हैं
बीते पंद्रह दिनों में शायद वो अज्दाद की तस्कीं का सामान बनी हों

वो ख़ुश हों मेरे सीने के भत्ते से उन का तनफ़्फ़ुस चलता है
मिरे ज़रिये वो इस दुनिया में अब भी जारी और सारी हैं

लेकिन अब तो उन का शजर दूर दूर तक फैल गया है
उन के जारी-सारी रहने का एहसास मिरे होने न होने का पाबंद नहीं

मैं जो नहीं था सब कुछ वैसे ही रुका पड़ा है
बेड से एक अधूरा ख़त अब भी झाँक रहा है

ये ख़त मैं ने तुम को लिक्खा था
कमरे के गोशे में दुबका सन्नाटा

मेरा हमेशा का हमराज़ वही सन्नाटा लौट आया है
सरगोशी में मुझ से कहता है

तुम इस ख़त से उम्र में पंद्रह रोज़ बड़े हो
उस दिन वो सारी बातें कितनी सच्ची थीं!

वो सच्चाई अटल है
वहीं खड़ी है

मेरी सारी नज़्मों की मानिंद
जो मेरी बीती साँसों का कतबा हैं

ज़िंदा हैं पाइंदा हैं
मेरे होने न होने की पाबंद नहीं