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आख़िरी बार मिलो | शाही शायरी
aaKHiri bar milo

नज़्म

आख़िरी बार मिलो

मुस्तफ़ा ज़ैदी

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आख़िरी बार मिलो ऐसे कि जलते हुए दिल
राख हो जाएँ कोई और तक़ाज़ा न करें

चाक-ए-वादा न सिले ज़ख़्म-ए-तमन्ना न खिले
साँस हमवार रहे शम्अ की लौ तक न हिले

बातें बस इतनी कि लम्हे उन्हें आ कर गिन जाएँ
आँख उठाए कोई उम्मीद तो आँखें छिन जाएँ

इस मुलाक़ात का इस बार कोई वहम नहीं
जिस से इक और मुलाक़ात की सूरत निकले

अब न हैजान ओ जुनूँ का न हिकायात का वक़्त
अब न तजदीद-ए-वफ़ा का न शिकायात का वक़्त

लुट गई शहर-ए-हवादिस में मता-ए-अल्फ़ाज़
अब जो कहना है तो कैसे कोई नौहा कहिए

आज तक तुम से रग-ए-जाँ के कई रिश्ते थे
कल से जो होगा उसे कौन सा रिश्ता कहिए

फिर न दहकेंगे कभी आरिज़-ओ-रुख़्सार मिलो
मातमी हैं दम-ए-रुख़्सत दर-ओ-दीवार मिलो

फिर न हम होंगे न इक़रार न इंकार मिलो
आख़िरी बार मिलो