आज फिर मुझ से
मिरा कमरा मुख़ातिब है
दराड़ें वो कभी
छत की दिखाता है
कभी दीवार में पड़ते शिगाफ़ों को
निशाँ झुलसे हुए रंगों का मुझ को
मुब्तिला कर देता है हैबत में
मकड़ी के सुबुक जाले
हवा के दोश पर लहराने लगते हैं
ज़वाल-ए-ज़िंदगी का वो पता भी देने लगते हैं
ज़मीं कमरे की
बोसीदा कहानी जब सुनाती है
किवाड़ों से सदा उठती है
रोने और सिसकने की
कभी आहें सी भरने कि
उन्हीं लम्हों के साए में मगर
कुछ झाँकती अँगूर की बेलें
दरीचे से तबस्सुम का शगुफ़्ता अक्स
दिखलाती हैं आँखों को
नज़्म
आज फिर मुझ से
जाफ़र साहनी