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आहिस्ता से गुज़रो | शाही शायरी
aahista se guzro

नज़्म

आहिस्ता से गुज़रो

फ़हीम शनास काज़मी

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गुज़रना ही अगर ठहरा
तो आहिस्ता से गुज़रो

कोई आहट न हो पाए
अभी रस्ते में रस्ता सो रहा है

अभी वीरानी के पहलू में ख़्वाबीदा है ख़ामोशी
अभी तन्हाई से लिपटी मसाफ़त सो रही है

कहीं ऐसा न हो
दश्त-ए-तहय्युर जाग जाए

लहू में बे-कराँ ग़म का समुंदर जाग जाए
अभी तो पहले डर ही से रगों में ख़ामुशी है

अभी तो ख़ून की हर बूँद रुक रुक के सरकती है
अभी ग़म दिल में

कुछ इस अंदाज़ से करवट बदलता है
नहीं होता ज़रा महसूस भी वो साँस लेता है

ब-ज़ाहिर सो रहा है ये समुंदर
इस को सोने दो

हमें भी अपने होने पर ज़रा सा खुल के रोने दो
गुज़रना हो तो इस मंज़र से आहिस्ता

बहुत आहिस्ता से गुज़रो
अभी तो धूप छाँव का

तमाशा हो रहा है
अभी अश्जार के साए में दरिया सो रहा है

कोई इस के किनारे
बादलों सा रो रहा है