हमारा रोज़ का मामूल था, सोने से पहले
बातें करने और झगड़ने का
गिले-शिकवे कि जिन में अगली पिछली
सारी बातें याद कर के रोते-धोते थे
कभी हँसते भी थे तो सिर्फ़ कुछ लम्हे
ज़रा सी देर में वैसा ही झगड़ा और वही ताने
वही सर पीटना, आँसू बहाना, चीख़ना, रोना
यूँही रोते हुए ख़्वाबों के दोज़ख़ में
भटकना, और सो जाना!
गुज़िश्ता शब भी कुछ ऐसी ही हालत थी
मगर सोने से पहले वो बहुत ही तिलमिलाया था
कहा था मैं चला जाऊँगा लेकिन तुम
फ़क़त आधे ही रह जाओगे इक टूटे खिलौने से!
मुझे ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब ने जैसे पागल कर दिया था
दफ़ा हो जाओ! मिरा तुम से कोई रिश्ता नहीं बाक़ी
मैं ख़्वाबों के दहकते दोज़ख़ों से सुब्ह निकला तो हूँ
लेकिन देखता क्या हूँ
कि वो ग़ाएब है पिछली रात से
मुझ को अकेला छोड़ कर जाने कहाँ अंजान राहों पर
भटकता फिर रहा होगा
करूँ क्या मैं? कहाँ ढूँडूँ उसे अब ऐसी हालत में?
मिरे घर के मकीनो, रिश्ता-दारो, ऐ गली वालो
मुझे यूँ रस्सियों से बाँध कर
ज़ेहनी मरीज़ों के शिफ़ा-ख़ाने में मत भेजो
कि मैं पागल नहीं हूँ, चीख़ता, सर पीटता तो हूँ
मगर मैं चीख़ कर उस को बुलाता हूँ
जो मेरा आधा हिस्सा है
जो मेरा दूसरा मैं है
नज़्म
आधा-अधूरा शख़्स
सत्यपाल आनंद