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मुंतज़िर है शाम | शाही शायरी
muntazir hai sham

नज़्म

मुंतज़िर है शाम

तरन्नुम रियाज़

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दो-जहाँ का हुस्न ले कर मुंतज़िर है शाम खिड़की पर
शिकस्ता-पुर्सी ना-उम्मीद अश्क आँखों में भर कर

इस तरह साकित न बैठो इक जगह पर
काँच को पत्थर की संगत में ही रहना हो

तो इक रस्ता ये है
वो फ़ासलों को दरमियाँ रखे

सुनो
ये ज़ीस्त ऐसी शय नहीं मिल पाएगी फिर

दो-जहाँ का हुस्न ले कर मुंतज़िर है शाम खिड़की पर
चलो हल्के से रंगों की लपेटो ओढ़नी

बरामदे में उस से खेलेंगी हवाएँ कासनी
फिर जामुनी सी रौशनी ओढ़ाएगी इक मख़मलीं चादर

मुक़य्यश उस में सितारे टाँकने उतरेंगे
देखो

ज़िंदगी का और इक दिन है गुज़रने को उठो तो
दो-जहाँ का हुस्न ले कर मुंतज़िर है शाम खिड़की पर