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हम कहाँ आ गए | शाही शायरी
hum kahan aa gae

नज़्म

हम कहाँ आ गए

ज़ुबैर रिज़वी

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हम कहाँ आ गए
सारे बे-सम्त हैं

क़ाफ़िले कारवाँ सारबाँ
एक सैलाब-ए-आदम रवाँ चार सू

इक तग-ओ-ताज़-ए-कार-ए-जहाँ
आसमाँ से परे सैर-ए-सय्यारगाँ

और ज़मीं-दोज़ पहनाइयों में
निगाहों की हैरानियाँ

अब कहीं भी नहीं
मातम-ए-मर्ग-ए-बे-चारगाँ

हर अदालत में इंसाफ़ की अर्ज़ियाँ
बातिलों की तरफ़दारियाँ

फिर उठा ले गए बानू-ए-बे-रिदा
सारे चुप-चाप हैं

कोई पुरसाँ नहीं
गिर्या-ए-तिफ़्ल-ए-ब-चारगाँ

कोई सुनता नहीं
ख़्वाब बीमार आँखों में मरते हुए

ख़ुद-कुशी चार-सू बैन करती हुई
ये मिरी अर्ज़-ए-जन्नत-निशाँ

जो पुकारी गई
क़िबला-ए-आर्फ़ाँ मा'बद-ए-नूरियाँ

कूचा-ए-दलरबाँ बस्ती-ए-आशिक़ाँ
मक़्तल-ए-हर्फ़-ओ-सौत-ओ-सदा बन गई

अब लहू-रंग हैं सारे तिश्ना-लबाँ
सादिक़-ओ-सादिक़ा

नाज़-बर्दार-ए-आशुफ़्तगाँ