वक़्त को सहरा कहूँ या बहर-ए-बे-साहिल कहूँ 
रात है रेग-ए-रवाँ की लहर या कि मौज-ए-आब-ए-ज़ि़ंदगी 
तारे जुगनू हैं कि मोती फूल हैं या सीपियाँ 
कहकशाँ है धूल तारों की कि मौज-ए-पुर-ख़रोश-ओ-दुर-फ़शाँ 
सोच की चिंगारियाँ उड़ती हैं यूँ 
जैसे दिल पर चोट पड़ती हो किसी एहसास की 
जैसे मैं तन्हा नहीं 
वक़्त के सहरा में जैसे अन-गिनत साए उभर कर मेरी जानिब 
दौड़ते आते हूँ 
साए 
बीती सदियाँ जैसे पर फैलाए उठीं गोल गोल 
अपनी लाशें छोड़ कर मेरी तरफ़ आईं 
कि जैसे नोच खाएँगी मुझे 
और फिर मुर्दा लाशें यक-ब-यक वहशी बगूलों की तरह 
रक़्स करती चार-सू 
ढोल-ताशों और नक़्क़ारों की हैबत-नाक आवाज़ों पे रक़्स 
खड़खड़ाती हड्डियाँ ख़ुद शो'ले बन कर नाचती हैं चार-सू 
और इक ज़रतुश्त सज्दा रेज़ हो कर 
उन की हैबत उन की अज़्मत उन की बे-रहमी को करता हो सलाम 
और वो 
उस को अपनी गुल-फ़िशाँ आग़ोश में ले कर उठीं 
जैसे माँ 
अपने बच्चे को उठाए 
और मैं 
वक़्त के बे-रहम हाथों में हों जैसे गिध के चंगुल में कोई ज़िंदा परिंद 
बीती सदियाँ शब के सन्नाटे मैं शब-ख़ूँ मार कर 
इस तरह यलग़ार करती हैं कि जैसे मैं निहत्ता हूँ 
मिरे तरकश के तीर 
मेरे ही सीने में हैं पैवस्त 
मैं ज़िंदा नहीं 
ज़िंदा नहीं 
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देख ऐ चश्म-ए-ख़याल 
सार के तारों पे इठलाती हुई वो जू-ए-नग़्मा बू-ए-गुल 
वो उरूस-ए-आरज़ू वो चाँदनी के पैरहन में हुस्न-ए-रक़्साँ मौज-ए-मय 
वो बहारों का तबस्सुम वो जवानी का ग़ुरूर 
तितलियों की ख़ामुशी गुनगुनाती रागनी 
आ रही है मेरी जानिब हाथ फैलाए हुए 
हुस्न जिस के लोच से है संग-ए-मरमर में गुदाज़ 
हुस्न जिस के रूप से आहन हुआ आईना-साज़ 
हुस्न अंगड़ाई में जिस की सैकड़ों क़ौमों का राज़ 
हुस्न जिस के अब्रूओं का जल्वा मेहराब-ए-नमाज़ 
हुस्न जिस का रस-भरा सीना हज़ारों गुम्बदों पर सरफ़राज़ 
क्या हुआ वो हुस्न वो दोशीज़ा वो मेरे 
ख़यालों की दुल्हन 
खो गई अपनी नुमू के पर्दा-ए-रंगीं के पीछे खो गई 
वक़्त के सहरा में ऐवानों की अज़्मत संग-साज़ों की तराश 
हजला-ए-सीमीं की रा'नाई का अफ़्सूँ हो गई 
हुस्न पत्थर बन गया फ़न की रगों का गर्म ख़ूँ 
मुर्दा सदियों के शबिस्तानों में अपनी आरज़ू से जी उठा 
और सूरज की तरह रौशन हुआ 
दिन ढले तक मेरी आँखों में रहा बीती हुई सदियों का नूर 
मेरा सरमाया था सूरज की मोहब्बत का फ़ुसूँ 
मेरे होंटों पर तराने थे कि मेरे ज़ेहन में 
गीत बन बन कर उभरता था फ़ज़ाओं का सुकूत 
यादें फूलों की तरह 
दिल के हर गोशे को महकाती थीं और मेरे ख़याल 
शाम तक 
आज की शब की तमन्ना में रहे 
नीम-शब की सर्द तारीकी में ये माज़ी के भूत 
नाचते हैं हर तरफ़ 
जैसे ये इक और दुनिया से दर आते हैं यहाँ 
जैसे मैं उन दुश्मनों में घिर गया हूँ जिन की भूक 
मेरे ख़ूँ से बुझ गई तो बुझ गई 
ख़ुश्क हैं लब दम निकलता जा है दम-ब-दम 
बे-हिसी छाए चली जाती है अब मैं क्या करूँ 
क्या करूँ 
वक़्त के सहरा का इक ज़र्रा हूँ मैं 
बीती सदियों ने जिसे पाला मगर 
आज मैं हूँ उन की आँखों वो ख़ार 
जिस को उस सहरा पे कोई हक़ नहीं 
काश वक़्त 
वुसअ'त-ए-सहरा में लाए बहर-ए-जौलाँ का ख़रोश 
और मैं अपने माज़ी की मुराद 
टूट कर इक और ही सहरा का माज़ी बन सकूँ
        नज़्म
मीनार-ए-सुकूत
यूसुफ़ ज़फ़र

