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ज़ुल्फ़ों का बिखरना इक तो बला, आरिज़ की झलक फिर वैसी ही | शाही शायरी
zulfon ka bikharna ek to bala, aariz ki jhalak phir waisi hi

ग़ज़ल

ज़ुल्फ़ों का बिखरना इक तो बला, आरिज़ की झलक फिर वैसी ही

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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ज़ुल्फ़ों का बिखरना इक तो बला, आरिज़ की झलक फिर वैसी ही
आँखों का मटकना होश-रुबा, हर एक पलक फिर वैसी ही

वो शोख़ जो गुज़रे मिस्ल-ए-सबा, तो भड़के न क्यूँ-कर आतिश-ए-दिल
इक तौर की उस की जुम्बिश-ए-पा, दामन की झटक फिर वैसी ही

कोई क्यूँ न गरेबाँ चाक करे अब देख के छब को उस बुत की
पिंडे का झलकना हाए ख़ुदा, चोली की मसक फिर वैसी ही

दिल क्यूँ न करे सीने में तपिश, जब यार की हो ये राह-ओ-रविश
रफ़्तार में इक अलबेली अदा, और क़द की लचक फिर वैसी ही

हम क्यूँ न कफ़ अफ़सोस मलें, जब वे ही तिरा पा-बोस करें
दामन से ज़ियादा बंद-ए-क़बा, ज़ुल्फ़ों की लटक फिर वैसी ही

वो माह छुपाया तू ने कहाँ है जिस से जिगर पर दाग़ मिरे
सूरत तो दिखा दे मुझ को ज़रा जल्दी से फ़लक फिर वैसी ही

ऐ 'मुसहफ़ी' मेरे हाल पे अब क्यूँ-कर न कोई अफ़सोस करे
बे-साख़्ता दिल बेताब हुआ आँसू की ढलक फिर वैसी ही