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ज़ुल्फ़-ए-दराज़ से ये नुमायाँ है ग़ालिबन | शाही शायरी
zulf-e-daraaz se ye numayan hai ghaaliban

ग़ज़ल

ज़ुल्फ़-ए-दराज़ से ये नुमायाँ है ग़ालिबन

शौक़ बहराइची

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ज़ुल्फ़-ए-दराज़ से ये नुमायाँ है ग़ालिबन
भालू की शक्ल का कोई इंसाँ है ग़ालिबन

क़ौल ओ अमल में जिस के नज़र आए कुछ तज़ाद
वो मौलवी नहीं कोई शैताँ है ग़ालिबन

गुलशन में तो गुलों का कहीं नाम तक नहीं
ये बाग़बाँ के हाथ में घोइयाँ है ग़ालिबन

होता है उस की शोख़ी-ए-गुफ़्तार पर गुमाँ
लहबड़ नहीं है ये कोई टोइयाँ है ग़ालिबन

होता नहीं है अब जो नमक-पाशियों का दौर
बस ख़ाली ख़ाली उन का नमक-दाँ है ग़ालिबन

बुलबुल ग़ुनूदगी में है और फूल मुज़्महिल
अफ़यूंची ये सारा गुलिस्ताँ है ग़ालिबन

फ़िरक़ा-परस्तियों ने खिलाए कुछ ऐसे गुल
समझे ये लोग फ़स्ल-ए-बहाराँ है ग़ालिबन

यूँ बे-तहाशा पीने लगे मय-कदे में शैख़
ठर्रा भी अब तो बादा-ए-इरफ़ाँ है ग़ालिबन

रह कर हमारी गर्दिश-ए-क़िस्मत के साथ साथ
चक्कर में ख़ुद भी गर्दिश-ए-दौराँ है ग़ालिबन

हुर्मत का उस की आप को वाइ'ज़ जो है ख़याल
बिन्त-ए-इनब हुज़ूर ही की माँ है ग़ालिबन

हर सम्त जो जलाजल-ओ-क़र्ना का शोर है
ग़ाज़ी-मियाँ के ब्याह का सामाँ है ग़ालिबन

ऐ 'शौक़' हर तरह के नज़र आ रहे हैं हुस्न
नख़्ख़ास ही में कूचा-ए-जानाँ है ग़ालिबन