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ज़िंदगी ज़हर का इक जाम हुई जाती है | शाही शायरी
zindagi zahr ka ek jam hui jati hai

ग़ज़ल

ज़िंदगी ज़हर का इक जाम हुई जाती है

निहाल सेवहारवी

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ज़िंदगी ज़हर का इक जाम हुई जाती है
क्या से क्या ये मय-ए-गुलफ़ाम हुई जाती है

कुछ गुज़ारी है ग़म-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत में हयात
कुछ सुपुर्द-ए-ग़म-ए-अैय्याम हुई जाती है

फिर किसी मर्द-ए-बराहीम का मोहताज है दहर
फिर वही कसरत-ए-असनाम हुई जाती है

हवस-ए-सैर-ए-तमाशा है कि होती नहीं ख़त्म
ज़िंदगी है कि सुबुक-गाम हुई जाती है

जो कभी ख़ालिक़-ए-हंगामा-ए-तूफ़ाँ थी वो मौज
हैफ़ ख़ू-कर्दा-ए-आराम हुई जाती है

सोहबत-ए-पीर-ए-मुग़ाँ में ये खुली अज़्मत-ए-इश्क़
अक़्ल भी दुर्द-ए-तह-ए-जाम हुई जाती है

तुम जो आए हो तो शक्ल-ए-दर-ओ-दीवार है और
कितनी रंगीन मिरी शाम हुई जाती है