ज़िंदगी से थक के उस कूचे में हूँ बैठा हुआ
जैसे अपने वक़्त का सूफ़ी बड़ा पहुँचा हुआ
जिस तरह बादल बरस जाएँ निखर जाने के ब'अद
आज आँसू बह के दिल का बोझ कुछ हल्का हुआ
जाने कब से धूप में प्यासे पड़े थे ख़ार-ए-दश्त
मेरे तलवों का सहारा मिल गया अच्छा हुआ
शहर-ए-बे-एहसास में मेरी सदा-ए-एहतिजाज
तीर हो जैसे अँधेरे में कोई छोड़ा हुआ
तर्ज़-ए-इस्तिफ़्सार कब है मेरी बातों का जवाब
ये कोई अंदाज़ है फिर क्या हुआ फिर क्या हुआ
ज़िंदगी रक़्साँ हो 'महशर' झूम उठ्ठे काएनात
ख़्वाब से उट्ठा हूँ मैं अंगड़ाइयाँ लेता हुआ
ग़ज़ल
ज़िंदगी से थक के उस कूचे में हूँ बैठा हुआ
महशर इनायती

