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ज़िंदगी मौत के पहलू में भली लगती है | शाही शायरी
zindagi maut ke pahlu mein bhali lagti hai

ग़ज़ल

ज़िंदगी मौत के पहलू में भली लगती है

सलीम अहमद

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ज़िंदगी मौत के पहलू में भली लगती है
घास इस क़ब्र पे कुछ और हरी लगती है

रोज़ काग़ज़ पे बनाता हूँ मैं क़दमों के नुक़ूश
कोई चलता नहीं और हम-सफ़री लगती है

आँख मानूस-ए-तमाशा नहीं होने पाती
कैसी सूरत है कि हर रोज़ नई लगती है

घास में जज़्ब हुए होंगे ज़मीं के आँसू
पाँव रखता हूँ तो हल्की सी नमी लगती है

सच तो कह दूँ मगर इस दौर के इंसानों को
बात जो दिल से निकलती है बुरी लगती है

मेरे शीशे में उतर आई है जो शाम-ए-फ़िराक़
वो किसी शहर-ए-निगाराँ की परी लगती है

बूँद भर अश्क भी टपका न किसी के ग़म में
आज हर आँख कोई अब्र-ए-तही लगती है

शोर-ए-तिफ़्लाँ भी नहीं है न रक़ीबों का हुजूम
लौट आओ ये कोई और गली लगती है

घर में कुछ कम है ये एहसास भी होता है 'सलीम'
ये भी खुलता नहीं किस शय की कमी लगती है