ज़िंदगी काविश-ए-बातिल है मिरा साथ न छोड़
तू ही इक उम्र का हासिल है मिरा साथ न छोड़
लोग मिलते हैं सर-ए-राह गुज़र जाते हैं
तू ही इक हम-सफ़र-ए-दिल है मिरा साथ न छोड़
तू ने सोचा है मुझे तू ने सँवारा है मुझे
तू मिरा ज़ेहन मिरा दिल है मिरा साथ न छोड़
तू न होगा तो कहाँ जा के जलूँगा शब भर
तुझ से ही गर्मी-ए-महफ़िल है मिरा साथ न छोड़
मैं कि बिफरे हुए तूफ़ाँ में हूँ लहरों लहरों
तू कि आसूदा-ए-साहिल है मिरा साथ न छोड़
इस रिफ़ाक़त को सिपर अपनी बना लें जी लें
शहर का शहर ही क़ातिल है मिरा साथ न छोड़
एक मैं ने ही उगाए नहीं ख़्वाबों के गुलाब
तू भी इस जुर्म में शामिल है मिरा साथ न छोड़
अब किसी राह पे जलते नहीं चाहत के चराग़
तू मिरी आख़िरी मंज़िल है मिरा साथ न छोड़
ग़ज़ल
ज़िंदगी काविश-ए-बातिल है मिरा साथ न छोड़
मज़हर इमाम