ज़िंदगी का किस लिए मातम रहे
मुल्क बसता है मिटे या हम रहे
दिल रहे पीरी में भी तेरा जवाँ
आख़िरी दम तक यही दम-ख़म रहे
चाहिए इंसान का दिल हो ग़नी
पास माल ओ ज़र बहुत या कम रहे
क्या इसी जन्नत की ये तहरीस है
जिस में कुछ दिन हज़रत-ए-आदम रहे
वस्ल से मतलब न रख तू इश्क़ का
दम भरे जा दम में जब तक दम रहे
लाग इक दिन बन के रहती है लगाव
हाँ लगावट कुछ न कुछ बाहम रहे
इश्क़ ने जिस दिल पे क़ब्ज़ा कर लिया
फिर कहाँ उस में नशात ओ ग़म रहे
शर्क़ से जब नूर चमका तो कहाँ
बर्ग-ए-गुल पर क़तरा-ए-शबनम रहे
हुस्न की दुनिया का है दाएम शबाब
हश्र तक उस का यही आलम रहे
है सुरूर-ए-हुस्न 'कैफ़ी' ला-यज़ाल
दर-ख़ुर-ए-ज़र्फ़ उस में बेश ओ कम रहे
ग़ज़ल
ज़िंदगी का किस लिए मातम रहे
दत्तात्रिया कैफ़ी