ज़िंदगी जब्र है और जब्र के आसार नहीं
हाए इस क़ैद को ज़ंजीर भी दरकार नहीं
बे-अदब गिर्या-ए-महरूमी-ए-दीदार नहीं
वर्ना कुछ दर के सिवा हासिल-ए-दीवार नहीं
आसमाँ भी तिरे कूचे की ज़मीं है लेकिन
वो ज़मीं जिस पे तिरा साया-ए-दीवार नहीं
हाए दुनिया वो तिरी सुरमा-तक़ाज़ा आँखें
क्या मिरी ख़ाक का ज़र्रा कोई बेकार नहीं
ग़ज़ल
ज़िंदगी जब्र है और जब्र के आसार नहीं
फ़ानी बदायुनी