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ज़िंदगी दस्त-ए-तह-ए-संग रही है बरसों | शाही शायरी
zindagi dast-e-tah-e-sang rahi hai barson

ग़ज़ल

ज़िंदगी दस्त-ए-तह-ए-संग रही है बरसों

वकील अख़्तर

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ज़िंदगी दस्त-ए-तह-ए-संग रही है बरसों
ये ज़मीं हम पे बहुत तंग रही है बरसों

तुम को पाने के लिए तुम को भुलाने के लिए
दिल में और अक़्ल में इक जंग रही है बरसों

अपने होंटों की दहकती हुई सुर्ख़ी भर दो
दास्ताँ इश्क़ की बे-रंग रही है बरसों

दिल ने इक चश्म-ए-ज़दन में ही किया है वो काम
जिस पे दुनिया-ए-ख़िरद दंग रही है बरसों

किस को मालूम नहीं वक़्त के दिल की धड़कन
मेरी हमराज़-ओ-हम-आहंग रही है बरसों

साफ़ तारीख़ ये कहती है कि मंसूरी से
मुज़्महिल सतवत-ए-औरंग रही है बरसों

मेरी ही आबला-पाई की बदौलत 'अख़्तर'
रह-गुज़र उन की शफ़क़-रंग रही है बरसों