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ज़िंदगी-भर एक ही कार-ए-हुनर करते रहे | शाही शायरी
zindagi-bhar ek hi kar-e-hunar karte rahe

ग़ज़ल

ज़िंदगी-भर एक ही कार-ए-हुनर करते रहे

अंबरीन हसीब अंबर

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ज़िंदगी-भर एक ही कार-ए-हुनर करते रहे
इक घरौंदा रेत का था जिस को घर करते रहे

हम को भी मा'लूम था अंजाम क्या होगा मगर
शहर-ए-कूफ़ा की तरफ़ हम भी सफ़र करते रहे

उड़ गए सारे परिंदे मौसमों की चाह में
इंतिज़ार उन का मगर बूढे शजर करते रहे

यूँ तो हम भी कौन सा ज़िंदा रहे इस शहर में
ज़िंदा होने की अदाकारी मगर करते रहे

आँख रह तकती रही दिल उस को समझाता रहा
अपना अपना काम दोनों उम्र-भर करते रहे

इक नहीं का ख़ौफ़ था सो हम ने पूछा ही नहीं
याद क्या हम को भी वो दीवार-ओ-दर करते रहे