EN اردو
ज़िंदगी बे-साएबाँ बे-घर कहीं ऐसी न थी | शाही शायरी
zindagi be-saeban be-ghar kahin aisi na thi

ग़ज़ल

ज़िंदगी बे-साएबाँ बे-घर कहीं ऐसी न थी

परवीन शाकिर

;

ज़िंदगी बे-साएबाँ बे-घर कहीं ऐसी न थी
आसमाँ ऐसा नहीं था और ज़मीं ऐसी न थी

हम बिछड़ने से हुए गुमराह वर्ना इस से क़ब्ल
मेरा दामन तर न था तेरी जबीं ऐसी न थी

अब जो बदला है तो अपनी रूह तक हैरान हूँ
तेरी जानिब से मैं शायद बे-यक़ीं ऐसी न थी

बद-गुमानी जब न थी तू भी नहीं था मो'तरिज़
मैं भी तेरी शख़्सियत पर नुक्ता-चीं ऐसी न थी

क्या मिरे दिल और क्या आँखों का हिस्सा है मगर
चादर-ए-शब इस से पहले शबनमीं ऐसी न थी

क्या हवा आई कि इतने फूल दिल में खिल गए
पिछले मौसम में ये शाख़-ए-यासमीं ऐसी न थी