ज़िंदगी बे-साएबाँ बे-घर कहीं ऐसी न थी
आसमाँ ऐसा नहीं था और ज़मीं ऐसी न थी
हम बिछड़ने से हुए गुमराह वर्ना इस से क़ब्ल
मेरा दामन तर न था तेरी जबीं ऐसी न थी
अब जो बदला है तो अपनी रूह तक हैरान हूँ
तेरी जानिब से मैं शायद बे-यक़ीं ऐसी न थी
बद-गुमानी जब न थी तू भी नहीं था मो'तरिज़
मैं भी तेरी शख़्सियत पर नुक्ता-चीं ऐसी न थी
क्या मिरे दिल और क्या आँखों का हिस्सा है मगर
चादर-ए-शब इस से पहले शबनमीं ऐसी न थी
क्या हवा आई कि इतने फूल दिल में खिल गए
पिछले मौसम में ये शाख़-ए-यासमीं ऐसी न थी
ग़ज़ल
ज़िंदगी बे-साएबाँ बे-घर कहीं ऐसी न थी
परवीन शाकिर