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ज़िंदा भी ख़ल्क़ में हूँ मरा भी हुआ हूँ मैं | शाही शायरी
zinda bhi KHalq mein hun mara bhi hua hun main

ग़ज़ल

ज़िंदा भी ख़ल्क़ में हूँ मरा भी हुआ हूँ मैं

ज़फ़र इक़बाल

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ज़िंदा भी ख़ल्क़ में हूँ मरा भी हुआ हूँ मैं
हूँ मुख़्तलिफ़ भी इस में फँसा भी हुआ हूँ मैं

जो अहल-ए-शहर को किसी सूरत नहीं है रास
ऐसी यहाँ पे आब-ओ-हवा भी हुआ हूँ मैं

आज़ुर्दा क्यूँ हैं अब मिरे शेवन पे अहल-ए-बाग़
कुछ दिन यहाँ पे नग़्मा-सरा भी हुआ हूँ मैं

इन बारिशों की मुझ को तमन्ना भी थी बहुत
दीवार से ज़रा सा मिटा भी हुआ हूँ मैं

रहता हूँ दूर उस के दिल-ए-नर्म से मगर
पत्थर की तरह इस में जुड़ा भी हुआ हूँ मैं

ज़िंदा हूँ फिर भी एक उमीद-ए-बहार पर
पत्ता हूँ और शजर से झड़ा भी हुआ हूँ मैं

रहता नहीं हूँ बोझ किसी पर ज़ियादा देर
कुछ क़र्ज़ था अगर तो अदा भी हुआ हूँ मैं

रखने लगे हैं कुछ नज़र-अंदाज़ भी ये लोग
मंज़र से अपने आप हटा भी हुआ हूँ मैं

इक दूर के सफ़र पे रवाना भी हूँ 'ज़फ़र'
सुस्त-उल-वजूद घर में पड़ा भी हुआ हूँ मैं