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ज़ीस्त में ग़म हैं हम-सफ़र फिर भी | शाही शायरी
zist mein gham hain ham-safar phir bhi

ग़ज़ल

ज़ीस्त में ग़म हैं हम-सफ़र फिर भी

एलिज़ाबेथ कुरियन मोना

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ज़ीस्त में ग़म हैं हम-सफ़र फिर भी
ता-अजल करना है बसर फिर भी

टूटी-फूटी हूँ चाहे दीवारें
अपना घर तो है अपना घर फिर भी

चाहे इंकार हम करें सच का
होवे है ज़ेहन पर असर फिर भी

दिल मचलता है उन से मिलने को
हम चुराते रहे नज़र फिर भी

है यक़ीं तुम हमें न भूलोगे
इक ज़माना गया गुज़र फिर भी

हैं ये अल्फ़ाज़ दिल लुभाने के
काश शायद यूँही मगर फिर भी