ज़ीस्त होनी तअज्जुबात है अब
मर ही जाना बस एक बात है अब
दौर में तेरे है वो कुछ अंधेर
नहीं मालूम दिन है रात है अब
दिल है ज़िंदा न जी ही जीता है
ज़िंदगी बद-तर-अज़-ममात है अब
इतने बे-दीद बे-शुनीद हुए
न तवज्जोह न इल्तिफ़ात है अब
हिज्र कैसा विसाल हो बिल-फ़र्ज़
कुछ ही सूरत हो मुश्किलात है अब
जी ही लेना ब-लुत्फ़ है मंज़ूर
इस क़दर जो तफ़ज़्जुलात है अब
जीते जी तो रहा विसाल मुहाल
मर चुके पर तवक़्क़ुआत है अब
कुछ न पूछो 'असर' की बेचैनी
न सुकूनत है ने सबात है अब

ग़ज़ल
ज़ीस्त होनी तअज्जुबात है अब
मीर असर