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ज़ीस्त होनी तअज्जुबात है अब | शाही शायरी
zist honi tajjubaat hai ab

ग़ज़ल

ज़ीस्त होनी तअज्जुबात है अब

मीर असर

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ज़ीस्त होनी तअज्जुबात है अब
मर ही जाना बस एक बात है अब

दौर में तेरे है वो कुछ अंधेर
नहीं मालूम दिन है रात है अब

दिल है ज़िंदा न जी ही जीता है
ज़िंदगी बद-तर-अज़-ममात है अब

इतने बे-दीद बे-शुनीद हुए
न तवज्जोह न इल्तिफ़ात है अब

हिज्र कैसा विसाल हो बिल-फ़र्ज़
कुछ ही सूरत हो मुश्किलात है अब

जी ही लेना ब-लुत्फ़ है मंज़ूर
इस क़दर जो तफ़ज़्जुलात है अब

जीते जी तो रहा विसाल मुहाल
मर चुके पर तवक़्क़ुआत है अब

कुछ न पूछो 'असर' की बेचैनी
न सुकूनत है ने सबात है अब