ज़ेर-ए-मेहराब न बाला-ए-मकाँ बोलती है
ख़ामुशी आ के सर-ए-ख़ल्वत-ए-जाँ बोलती है
ये मिरा वहम है या मुझ को बुलाते हैं वो लोग
कान बजते हैं कि मौज-ए-गुज़राँ बोलती है
लो सावाल-ए-दहन-ए-बस्ता का आता है जवाब
तीर सरगोशियाँ करते हैं कमाँ बोलती है
एक मैं हूँ कि इस आशोब-ए-नवा में चुप हूँ
वर्ना दुनिया मिरे ज़ख़्मों की ज़बाँ बोलती है
हू का आलम है गिरफ़्तारों की आबादी में
हम तो सुनते थे कि ज़ंजीर-ए-गिराँ बोलती है
दर्द के बाब में तिमसाल-गरी है ख़ामोश
बन भी जाती है तो तस्वीर कहाँ बोलती है
ग़ज़ल
ज़ेर-ए-मेहराब न बाला-ए-मकाँ बोलती है
इरफ़ान सिद्दीक़ी