ज़रा सी देर को आए थे ख़्वाब आँखों में
फिर उस के बा'द मुसलसल अज़ाब आँखों में
वो जिस के नाम की निस्बत से रौशनी था वजूद
खटक रहा है वही आफ़्ताब आँखों में
जिन्हें मता-ए-दिल-ओ-जाँ समझ रहे थे हम
वो आइने भी हुए बे-हिजाब आँखों में
अजब तरह का है मौसम कि ख़ाक उड़ती है
वो दिन भी थे कि खिले थे गुलाब आँखों में
मिरे ग़ज़ाल तिरी वहशतों की ख़ैर कि है
बहुत दिनों से बहुत इज़्तिराब आँखों में
न जाने कैसी क़यामत का पेश-ख़ेमा है
ये उलझनें तिरी बे-इंतिसाब आँखों में
जवाज़ क्या है मिरे कम-सुख़न बता तो सही
ब-नाम-ए-ख़ुश-निगही हर जवाब आँखों में
ग़ज़ल
ज़रा सी देर को आए थे ख़्वाब आँखों में
इफ़्तिख़ार आरिफ़