ज़रा सी बात पे इतना जलाल क्यूँ आया
तअ'ल्लुक़ात के शीशे में बाल क्यूँ आया
किसी बुज़ुर्ग की सोहबत है तुम को क्या मा'लूम
मिरे मिज़ाज में ये ए'तिदाल क्यूँ आया
ज़मीं पे आ गया मग़रूर ये ख़बर भी है
तरक़्क़ियात को उस की ज़वाल क्यूँ आया
उसे गँवाने का पछतावा गर नहीं तुझ को
तिरी ज़बान पे लफ़्ज़-ए-मलाल क्यूँ आया
चलो ये माना शिकारी नहीं है सूफ़ी है
बग़ल में अपनी दबा कर वो जाल क्यूँ आया
बिछड़ के भी तो तसव्वुर में तेरे आऊँगा
मगर बिछड़ने का तुझ को ख़याल क्यूँ आया
जो अहल-ए-होश को दीवाना ही बनाता है
नज़र के सामने वो बा-कमाल क्यूँ आया
गया था सोच के मिल कर ही उस से आऊँगा
'नज़ीर' लौट के इतना निढाल क्यूँ आया
ग़ज़ल
ज़रा सी बात पे इतना जलाल क्यूँ आया
नज़ीर मेरठी