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ज़मीं से रिश्ता-ए-दीवार-ओ-दर भी रखना है | शाही शायरी
zamin se rishta-e-diwar-o-dar bhi rakhna hai

ग़ज़ल

ज़मीं से रिश्ता-ए-दीवार-ओ-दर भी रखना है

फ़ातिमा हसन

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ज़मीं से रिश्ता-ए-दीवार-ओ-दर भी रखना है
सँवारने के लिए अपना घर भी रखना है

हवा से आग से पानी से मुत्तसिल रह कर
इन्हीं से अपनी तबाही का डर भी रखना है

मकाँ बनाते हुए छत बहुत ज़रूरी है
बचा के सेहन में लेकिन शजर भी रखना है

ये क्या सफ़र के लिए हिजरतें जवाज़ बनें
जो वापसी का हो ऐसा सफ़र भी रखना है

हमारी नस्ल सँवरती है देख कर हम को
सो अपने-आप को शफ़्फ़ाफ़-तर भी रखना है

हवा के रुख़ को बदलना अगर नहीं मुमकिन
हवा की ज़द पे सफ़र का हुनर भी रखना है

निशान-ए-राह से बढ़ कर हैं ख़्वाब मंज़िल के
इन्हें बचाना है और राह पर भी रखना है

जवाज़ कुछ भी हो इतना तो सब ही जानते हैं
सफ़र के साथ जवाज़-ए-सफ़र भी रखना है