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ज़मीं पे मकतब-ए-आदम का इक निसाब है इश्क़ | शाही शायरी
zamin pe maktab-e-adam ka ek nisab hai ishq

ग़ज़ल

ज़मीं पे मकतब-ए-आदम का इक निसाब है इश्क़

ज़िया फ़ारूक़ी

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ज़मीं पे मकतब-ए-आदम का इक निसाब है इश्क़
लिखी गई जो अज़ल में वही किताब है इश्क़

हुदूद-ए-ज़ात के अंदर भी शोर-ओ-शर उस का
हुदूद-ए-ज़ात के बाहर भी इज़्तिराब है इश्क़

जुनूँ की तह से जो उभरे तो गौहर-ए-नायाब
हवस की मौज पे आए तो इक हबाब है इश्क़

किसी सवाल की सूरत है काएनात तमाम
और इस सवाल का आसान सा जवाब है इश्क़

समेट लें जो निगाहें तो हुस्न-ए-लैला तक
बिखेर दें जो फ़ज़ा में तो बे-हिसाब है इश्क़

वरक़ वरक़ पे है बिखरा मिरे वजूद का रंग
ये किस के हाथ की लिक्खी हुई किताब है इश्क़

फ़ज़ा-ए-लैला-ए-शब में है रौशनी उस की
'ज़िया'-ए-नख़वत-ए-शीरीं का आफ़्ताब है इश्क़