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ज़मीं की गोद में बैठा हुमक रहा हूँ मैं | शाही शायरी
zamin ki god mein baiTha humak raha hun main

ग़ज़ल

ज़मीं की गोद में बैठा हुमक रहा हूँ मैं

कौसर नियाज़ी

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ज़मीं की गोद में बैठा हुमक रहा हूँ मैं
फ़लक पे चाँद की जानिब लपक रहा हूँ मैं

नहीं है अपनी ज़मीं की कोई ख़बर लेकिन
ख़ला में दूर किसी शय को तक रहा हूँ मैं

नहा गया हूँ ख़ुद अपने लहू में सर-ता-पा
जुनूँ की आग में लेकिन दहक रहा हूँ मैं

अगरचे ज़ुल्मत-ए-शब में कमी नहीं आई
मिसाल-ए-माह-ए-दरख़्शाँ चमक रहा हूँ मैं

हर एक सम्त बदलती रुतों का मातम है
शगुफ़्ता ग़ुंचे की सूरत चटक रहा हूँ मैं

परखने वाले मुझे देख इस तरह भी ज़रा
अगर है खोट तो कैसे चमक रहा हूँ मैं

गिरी ही जाती है दीवार-ए-गिर्या हर लहज़ा
किसी की आँख से शायद ढलक रहा हूँ मैं

तमाम शहर ने दीदार कर लिया 'कौसर'
अब अपनी लाश के चेहरे को ढक रहा हूँ मैं