ज़मीं के ज़ख़्म को पहले रफ़ू किया जाए
फिर उस के बा'द दरीदा फ़लक सिया जाए
हमारा अक्स अगर दरमियाँ न हाइल हो
तो आइने को गले से लगा लिया जाए
ये ज़िंदगी तो पुरानी शराब जैसी है
ये कड़वा घूँट है लेकिन इसे पिया जाए
जो रफ़्तगाँ हैं उन्हें लौट कर नहीं आना
अब इंतिज़ार का बिस्तर उठा दिया जाए
तुम्हारी याद ने शब-ख़ून मारना है तो क्या
दिल-ओ-दिमाग़ से पहरा हटा दिया जाए
हमारे सर पे जो टूटा है आसमाँ तो क्या
अब आसमान को सर पर उठा लिया जाए

ग़ज़ल
ज़मीं के ज़ख़्म को पहले रफ़ू किया जाए
अासिफ़ रशीद असजद