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ज़मीन जब भी हुई कर्बला हमारे लिए | शाही शायरी
zamin jab bhi hui karbala hamare liye

ग़ज़ल

ज़मीन जब भी हुई कर्बला हमारे लिए

उबैदुल्लाह अलीम

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ज़मीन जब भी हुई कर्बला हमारे लिए
तो आसमान से उतरा ख़ुदा हमारे लिए

उन्हें ग़ुरूर कि रखते हैं ताक़त ओ कसरत
हमें ये नाज़ बहुत है ख़ुदा हमारे लिए

तुम्हारे नाम पे जिस आग में जलाए गए
वो आग फूल है वो कीमिया हमारे लिए

बस एक लौ में उसी लौ के गिर्द घूमते हैं
जला रखा है जो उस ने दिया हमारे लिए

वो जिस पे रात सितारे लिए उतरती है
वो एक शख़्स दुआ ही दुआ हमारे लिए

वो नूर नूर दमकता हुआ सा इक चेहरा
वो आईनों में हया ही हया हमारे लिए

दरूद पढ़ते हुए उस की दीद को निकलें
तो सुब्ह फूल बिछाए सबा हमारे लिए

अजीब कैफ़ियत-ए-जज़्ब-ओ-हाल रखती है
तुम्हारे शहर की आब-ओ-हवा हमारे लिए

दिए जलाए हुए साथ साथ रहती है
तुम्हारी याद तुम्हारी दुआ हमारे लिए

ज़मीन है न ज़माँ नींद है न बे-दारी
वो छाँव छाँव सा इक सिलसिला हमारे लिए

सुख़न-वरों में कहीं एक हम भी थे लेकिन
सुख़न का और ही था ज़ाइक़ा हमारे लिए