ज़माने में मोहब्बत की अगर बारिश नहीं होती
किसी इंसान को इंसान की ख़्वाहिश नहीं होती
हज़ारों रंज-ओ-ग़म कैसे वो अपने दिल में रखते हैं
कि जिन के दिल में थोड़ी सी भी गुंजाइश नहीं होती
हम अपनी जान दे कर दोस्ती का हक़ निभा देते
ज़माने की अगर इस में कोई साज़िश नहीं होती
तुम्हारे पाँव तो दो-गाम चल कर लड़खड़ाते हैं
हमारे अज़्म-ए-मोहकम में कभी लग़्ज़िश नहीं होती
तुम्हारी ही मोहब्बत का सिला है ये ग़ज़ल 'आरिफ़'
लबों को शेर कहने की कभी जुम्बिश नहीं होती
ग़ज़ल
ज़माने में मोहब्बत की अगर बारिश नहीं होती
सय्यद आरिफ़ अली