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ज़माँ मकाँ थे मिरे सामने बिखरते हुए | शाही शायरी
zaman makan the mere samne bikharte hue

ग़ज़ल

ज़माँ मकाँ थे मिरे सामने बिखरते हुए

राजेन्द्र मनचंदा बानी

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ज़माँ मकाँ थे मिरे सामने बिखरते हुए
मैं ढेर हो गया तूल-ए-सफ़र से डरते हुए

दिखा के लम्हा-ए-ख़ाली का अक्स-ए-ला-तफ़सीर
ये मुझ में कौन है मुझ से फ़रार करते हुए

बस एक ज़ख़्म था दिल में जगह बनाता हुआ
हज़ार ग़म थे मगर भूलते-बिसरते हुए

वो टूटते हुए रिश्तों का हुस्न-ए-आख़िर था
कि चुप सी लग गई दोनों को बात करते हुए

अजब नज़ारा था बस्ती का उस किनारे पर
सभी बिछड़ गए दरिया से पार उतरते हुए

मैं एक हादसा बन कर खड़ा था रस्ते में
अजब ज़माने मिरे सर से थे गुज़रते हुए

वही हुआ कि तकल्लुफ़ का हुस्न बीच में था
बदन थे क़ुर्ब-ए-तही-लम्स से बिखरते हुए