ज़मान-ए-हिज्र मिटे दौर-ए-वस्ल-ए-यार आए
इलाही अब तो ख़िज़ाँ जाए और बहार आए
सितम-ज़रीफ़ी-ए-फ़ितरत ये क्या मुअ'म्मा है
कि जिस कली को भी सूंघूँ मैं बू-ए-यार आए
चमन की हर कली आमादा-ए-तबस्सुम है
बहार बन के मिरी जान-ए-नौ-बहार आए
हैं तिश्ना-काम हम उन बादलों से पूछे कोई
कहाँ बहार की परियों के तख़्त उतार आए
तिरे ख़याल की बे-ताबियाँ मआ'ज़-अल्लाह
कि एक बार भुलाएँ तो लाख बार आए
वो आएँ यूँ मिरे आग़ोश-ए-इश्क़ में 'अख़्तर'
कि जैसे आँखों में इक ख़्वाब-ए-बे-क़रार आए
ग़ज़ल
ज़मान-ए-हिज्र मिटे दौर-ए-वस्ल-ए-यार आए
अख़्तर शीरानी